आजमगढ़ के माटी के लाल कैफी आज़मी की ‘औरत’ नज्म़ ने कैफी़ और शौक़त के बीच मोहब्बत के फूल खिलाए थें…देखे ये विशेष रिपोर्ट
माटी के लाल आज़मियों की तलाश में..
० फरवरी-1947 में हैदराबाद के एक मुशायरे में प्रोग्रेसिव शायर कैफी को सुनने के बाद अपनी सगाई तोड़ दी थीं शौक़त आज़मी.
० शौक़त ने अमीरी और मुहब्बत के बीच मुहब्बत को चुना था.
० कैफी के सिनेमा, साहित्य में दिए गए अविस्मरणीय योगदान पर पद्मश्री भी मिला.
० बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने के विकल्प होने पर वालिद और भाईयों के साथ न जाकर अपने मादरे वतन ‘मेजवां’ को चुना कैफ़ी आजमी ने
० हीर-रांझा फिल्म कैफी की सिनेमाई कविता है. जिसकी पटकथा और गीत उन्होंने लिखी थी.
@ अरविंद सिंह #कैफी_आज़मी
वे फरवरी 1947 के दिन थे, हैदराबाद में प्रगतिशील लेखकों का एक जलसा चल रहा था.मंच के सामने अदभुत दृश्य था. सामने, जैसे पूरा हैदराबाद बिछ सा गया हो. शायरों की यह महफ़िल पूरे शबाब पर थी. एक नौजवान अपने पूरे रौव में प्रेम के इस चारमीनारी शहर में प्रेम की निशानी ‘ताज़’ पर क़लाम सुना रहा था. सामने खुबसूरत लड़कियां और महिलाएं भी थीं. जो मुशायरे और ग़जलों की इस महफ़िल में मंत्रमुग्ध होकर सुनी जा रहीं थीं. मजरूह सुल्तानपुरी और सरदार जाफरी जैसे दिग्गज, इस जलसे को ऊंचाई दे रहे थे.
पहले दिन का कार्यक्रम समाप्त हुआ, यह नौजवान मंच से जैसे ही उतरा, आटोग्राफ लेने के लिए चहकती हुईं लड़कियां और लड़कों का एक झुंड आगे बढ़ा. लेकिन इसी झुंड में एक खुबसूरत सी लड़की जो पहले इस नौजवान शायर की ओर मुड़ी लेकिन फिर आटोग्राफ के लिए सरदार जाफरी के पास पहुंच गयी. कनखियों से देख रहे इस मंजर से वह नौजवान शायर भीतर-भीतर ही रश्क़ महसूस करने लगा था. उसे लगा वह लड़की आटोग्राफ के लिए मेरे तरफ बढ़कर सरदार जाफरी की ओर मुड़ गयी. फिर जब वह लड़की सरदार जाफरी से आटोग्राफ लेकर आखिर में जब उस नौजवान के पास पहुंची तो उस नौजवान ने बड़े रूखे मन से कोई हल्ला सा शेर उसके नोटबुक पर लिख दिया.
और अपने ठहरने के स्थान पर चल दिया. रास्ते में जब वह लड़की उस नौजवान से पूछी कि- आप ने मेरी सहेली के नोटबुक पर बहुत अच्छा शेर लिखा है और मेरे पर इतना हल्का.. आखिर क्यों. इस नौजवान ने जो जवाब दिया, वह मोहब्बत की ‘भाषा-विज्ञान’ समझने वालों के लिए संकेत है- ‘तुम मेरे तरफ मुड़कर फिर सरदार जाफरी के पास क्यों चली गई.?
अबतक यह लड़की समझ चुकी थी कि – वह जो समझ रही है.. वह बिल्कुल ठीक है.. अनायास ही किसी को इतनी तकलीफ तो नहीं होती है..
दूसरे दिन के मुशायरे में जब वह लड़की सामने की पंक्ति में बैठी जो खुब सजधज कर आयी थी. साथ में मुशायरे के शौकीन उसके बड़े भाई भी थे. मंच पर जब इस नौजवान शायर ने अपनी खनकती आवाज में ‘औरत’ नज्म़ पढ़ना शुरू किया तो पूरी भीड़ जैसे मंत्र मुग्ध होती चली गई. वह लड़की तो जैसे एक-एक पंक्ति में डूबती सी जा रही थी.
और उसे लग रहा था कि- नज्म़ उसके लिए ही लिखा गया है और उसे ही सुनाया जा रहा है. वह-एक लफ्ज़ को पी रही थी..
“उठ मेरी जान!!
मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़ल्ब-ए-माहौल में लर्ज़ां शरर-ए-जंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक-रंग हैं आज
आबगीनों में तपाँ वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क़ हम-आवाज़ ओ हम-आहंगल हैं आज
जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे”
लोगो की तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा माहौल गूंज रहा था. लेकिन यह लड़की बिल्कुल शांत एक-एक पंक्ति में जैसे स्वयं घुलती सी जा रही हो. लड़की के बड़े भाई बोल पड़ें..माशा अल्लाह.!
‘इतनी कम उम्र में इतना बड़ा ख़्याल.. जरूर इनके उद्देश्य बहुत बड़े होगें.. ! ‘
नज्म़ खत्म हुई लेकिन वह लड़की अब भी उसी नज्म़ में डूबी..सोच रही है कि जिस शायर के लिए औरत के बारे में इतने ऊंचे ख़्याल हों, वह हकीकत में औरत का कितना इज़्ज़त करता होगा. कितना हसीन और पाक ख्याल हैं.
दरअसल यह सब, वह लड़की..सोच रही थी..जिसकी सगाई हो चुकी है और जो चंद दिनों बाद किसी के जिन्दगी का हिस्सा बन जाने वाली थी. लेकिन वह तो अपना दिल किसी के शायरी में हार चुकी है… वह नौजवान अपनी आवाज़ और शायरी से उसके दिलों में जैसे उतरता चला गया और वह आवाज़ के रास्ते क़तरा-क़तरा पिघलती सी चली गई. फिर क्या, मन ही मन उसने सोच लिया. अब मुझे इस इंसान के साथ बाकी जिन्दगी बितानी हैं. शायरों की इस महफ़िल में लिखी गई मोहब्बत की इबारत ने इस लड़की के कोरे दिल पर लिख दिया- एक नाम- ‘कैफ़ी आज़मी’.
दिल हार चुकी यह लड़की थी प्रख्यात अदाकारा ‘शौक़त आज़मी’ थीं और यह दोनों ही थे, प्रख्यात सिने तारिका शबाना आज़मी के मां- बाप. अपनी मशहूर आत्मकथा ‘याद की रहगुज़र’ में शौ़कत आज़मी ने अपने शौहर कैफ़ी आज़मी के साथ उन हसीन पलों का बड़ी बेबाकी से जिक्र किया है.
यह ‘आज़मियों’ की माटी की खूबी है कि वह जहाँ रहती है अपने मेयार बना लेती है.
कैफ़ी आज़मी के बारें में प्रख्यात शायर निदा फ़ाज़ली भी बहुत शानदार विचार रखते हैं.
बकौल निदा फाजली,– ”कैफी आज़मी सिर्फ शायर ही नहीं थे.वह शायर के साथ स्टेज के अच्छे ‘परफार्मर’ भी थे. इस ‘परफार्मेंस’ की ताकत उनकी आवाज़ और आवाज़ के उतार चढ़ाव के साथ मर्दाना कदोकामत और फिल्मी अदाकारों जैसी सूरत भी थी.शायरी और इसकी अदायगी.ये दोनों विशेषताएं किसी एक शायर में मुश्किल से ही मिलती हैं.और जब ये मिलती है तो शायर अपने जीवन काल में ही लोकप्रियता के शिखर को छूने लगता है.कैफी आजमी इसी परंपरा से जुड़े शायर थे, यह परंपरा उन्हें बचपन में मोहर्रम की उन मजलिसों से मिली थी, जिनमें मर्सिए (शोक-गीत) सुनाए जाते थें “
कैफी के चाहने वाले उन्हें रूमानियत का शायर कहते थे. उनके अनेक किस्से हैं.उन्हें सुनने वाले पहली बार में ही उन्हें अपना दिल दे बैठते थे.
प्रारंभिक जीवन :-
कैफी आज़मी का असली नाम अख्तर हुसैन रिजवी था. आजमगढ़ जिले के छोटे से गांव मेजवां में 14 जनवरी 1919 में जन्म हुआ. गांव के सादगी भरे माहौल में बालक अख्तर की परवरिश हुई. बचपन में ही शेरों-शायरी पढ़ने का शौक लगा.भाइयों ने प्रोत्साहित किया तो खुद भी लिखने लगे.11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिख डाली.
किशोर होते-होते मुशायरों में शामिल होने लगें. वर्ष 1936 में साम्यवादी विचारधारा से इतने प्रभावित हुए कि सदस्यता ही ग्रहण कर ली.धार्मिक रूढ़िवादिता से परेशान कैफी को इस विचारधारा में जैसे सारी समस्याओं का हल मिल गया.उन्होंने निश्चय किया कि सामाजिक संदेश और बदलाव के लिए ही उनकी लेखनी चलेगी.
फिर एक दिन 1943 में साम्यवादी दल ने मुंबई में अपना कार्यालय शुरू किया. उन्हें उसको देखने के लिए एक वैचारिक शख्स की दरकार थी. कैफ़ी को यह जिम्मेदारी देकर भेजा गया. जहाँ पहुंचकर कैफी़ ने उर्दू जर्नल ‘मजदूर मोहल्ला’ का संपादन शुरू कर किया.
वैवाहिक जीवन :-
उनकी जीवन संगिनी शौकत एक साक्षात्कार में बताती हैं कि- जब हैदराबाद में हमने कैफी को दिल दे दिया और अपनी सगाई तोड़ दिया तो अब्बु से कैफी के बारे में बताया. वे बहुत प्रोग्रेसिव इंसान थे- वे मुझे लेकर मुंबई पहुंचे और कैफी के संघर्ष की हकीकत दिखाई. लेकिन मैंने कह दिया- अगर कैफी मजदूरी करेगें… मिट्टी उठाएगें तो मैं भी उनके साथ मजदूरी करूँगी लेकिन निकाह तो कैफी से ही होगा. फिर क्या बेटी की मोहब्बत पर मजबूर उनके वालिद ने कैफी से निकाह कर दिया.
आर्थिक रूप से संपन्न और साहित्यिक संस्कारों वाली शौकत को कैफी के लेखन और शायरी ने बूरी तरह से प्रभावित किया और मई 1947 में यह दो संवेदनशील कलाकार विवाह बंधन में बंध गए. शादी के बाद शौकत ने रिश्ते की गरिमा इस हद तक निभाई कि खेतवाड़ी में पति के साथ ऐसी जगह रहीं, जहां टॉयलेट/बाथरूम कॉमन थे. यहीं पर बेटी शबाना आज़मी और बेटा बाबा आज़मी का जन्म हुआ.बहुत बाद में जुहू स्थित बंगले में आए.
जब निकाह के बाद पहली बार शौक़त कैफी आजमी अपने शौहर कैफी आज़मी के पैतृक गांव मेजवां आजमगढ़ आयीं तो देखा गाँव में अभावग्रस्त जिन्दगी कैसे रहती हैं. लेकिन उन्होंने कैफी की विवशता नहीं बल्कि ताकत बनकर हर कष्ट को, हर तकलीफ को सह लिया, क्योंकि कैफी उनकी मुहब्बत थे. जिसके लिए उन्होंने हैदराबाद की सगाई तक को तोड़ दी थीं.
फिल्मी सफ़र :-
फिल्मों में मौका ‘बुजदिल (1951)’ से मिला. लेकिन स्वतंत्र रूप से उनका लेखन चलता रहा.कैफी की भावुक, रोमांटिक शायरी और प्रभावी लेखनी से प्रगति के रास्ते खुलते गएं और वे सिर्फ गीतकार ही नहीं बल्कि पटकथाकार के रूप में भी स्थापित हो गए. ‘हीर-रांझा’ कैफी की सिनेमाई कविता कही जा सकती है.सादगीपूर्ण व्यक्तित्व वाले कैफी बेहद हंसमुख थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं.
गांव से हमेशा जुड़ाव रहा :-
देश के बंटवारे के समय कैफी को पाकिस्तान जाने का विकल्प खुला था, बहुत से लोग जा रहे थे. खुद उनके वालिद और भाईयों ने पाकिस्तान को चयन किया. ऐसी सूरत में कैफी आज़मी ने अपने मादरे वतन हिन्दुस्तान को चुना और मेजवां को हमेशा अपनी सांसों में बसाये रखा. मेजवां हमेशा उनकी यादों और जिन्दगी में बना रहा. क्योंकि उन्हें मेजवां से बहुत प्रेम था.
वर्ष 1973 में ब्रेनहैमरेज से लड़ते हुए जीवन को एक नया दर्शन मिला – बस दूसरों के लिए जीना है.अपने गांव मेजवां में कैफी ने स्कूल, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस और सड़क बनवाने में मदद की. कैफी की साहित्य और सिनेमा की देन को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने सुल्तानपुर से फूलपुर सड़क को कैफी मार्ग घोषित कर दिया. 10 मई 2002 को कैफी अपने ही लिखे गीत गुनगुनाते हुए इस फा़नी दुनिया से चल दिए : ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं…।
प्रमुख रचनाएं :-
उनकी रचनाओं में ‘आवारा सज़दे’, ‘इंकार’, ‘आख़िरे-शब’ आदि प्रमुख हैं.
पुरस्कार एवं सम्मान :-
क़ैफ़ी आज़मी को राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा कई बार फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला.1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.
कैफी के कुछ प्रमुख फिल्मी गीत :-
मैं ये सोच के उसके दर से उठा था।..(हकीकत
है कली-कली के रुख पर तेरे हुस्न का फसाना…(लालारूख)
वक्त ने किया क्या हसीं सितम… (कागज के फूल)
इक जुर्म करके हमने चाहा था मुस्कुराना… (शमा)
जीत ही लेंगे बाजी हम तुम… (शोला और शबनम)
तुम पूछते हो इश्क भला है कि नहीं है।.. (नकली नवाब)
राह बनी खुद मंजिल… (कोहरा)
सारा मोरा कजरा चुराया तूने… (दो दिल)
बहारों…मेरा जीवन भी संवारो… (आखिरी ख़त)
धीरे-धीरे मचल ए दिल-ए-बेकरार… (अनुपमा)
या दिल की सुनो दुनिया वालों… (अनुपमा)
मिलो न तुम तो हम घबराए… (हीर-रांझा)
ये दुनिया ये महफिल… (हीर-रांझा)
जरा सी आहट होती है तो दिल पूछता है।.. (हकीकत)
क़ैफ़ी की शायरी कुछ पंक्तियां :-
इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े हंसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े. जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े.
कोई ये कैसे बताये के वो तन्हा क्यों हैं वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं