आजमगढ़। शैदा साहित्य मंडल की मासिक गोष्ठी नगर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार जगदीश प्रसाद कुंन्द के आवास पर सम्पन्न हुई। गोष्ठी के प्रथम सत्र में राष्ट्रीय कवि पंडित रामचरित उपाध्याय के जीवनवृत्त पर परिचर्चा हुई। जगदीश प्रसाद कुंद ने उन्हें राष्ट्रवादी कवि बताया जो कि गुलाम भारत में रहते हुए अपने काव्य के माध्यम से निर्भिक भाव से राष्ट्र के आजादी की बात करते थे। शशिभूषण प्रशांत ने उन्हें राष्ट्रीय चेतना का कवि बताया जो भारतीय संस्कृति के ध्वज वाहक बने। श्रीहरि पाठक ने उन्हें तत्कालीन समय के एक श्रेष्ठ कवि बताया। दूसरे सत्र में एक सरस काव्य गोष्ठी का आयोजन किया। जिसमे मौजूद कवियों ने एक से बढ़कर अपनी रचनाओं से महफिल जमां दिया।
आजमगढ़ की शान में कवि आदित्य आजमी ने शिब्ली कैफी राहुल की यह जमीं हमारी है, आजमगढ़ की पाकिजा जमीं दुनियाभर में न्यारी है सुनाया वहीं लालबहादुर चौरसिया लाल ने हूं न पाये हाथ खूनी ठौर अब पाऊं कहां, हर डाल पर उसकी नर बैठू, कहां जाऊ कहां प्रस्तुत किया। इसके बाद जयहिन्द सिंह हिन्द ने गीत लिखता रहा और गाता रहा, शब्दों को मोतियों सा पिरोता रहा प्रस्तुत किया। राजनाथ राज ने विषधरों को दूध है, बछड़ों को सूखी घास है, हाकिमों हल उनका दे दो गर तुम्हें एहसास है सुनाकर जोश का संचार किया। इसके बाद मंच की कमान कवियत्री आशा सिंह ने संभालते हुए मैं सुगंध बन जाऊं वेद की ऋचाओं की, रंगकुछ मोहब्बत के रोशनी वफाओं की प्रस्तुत किया वही प्रज्ञा कौशिक ने इन मनुष्य रूपी तपोवन में, मैंने विभिन्न संवेदनाओं से परिपूर्ण बहुत से पौधे रोपे, सच का झूठ का, पाप और पूर्ण का सुनाकर लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसके बाद सरोज यादव ने केथुआ क सार तु बतावेला दियनवा, काहे बदे खुद के जरावेला दियनवा सुनाया। वहीं प्रीति गिरी ने वो जब सम्मान का आटा भाव के जल से गूंथती है, तब मर्यादा की रोटी त्याग के लौ पर पकती सुनाकर लोगों के स्तब्ध कर दिया। इसके बाद नवन्या गोस्वामी ने मत सोचा गिनती के है, एक दो, तीन चार, यह सोचों की इनके श्रम से खेल भी होंगे अब त्यौहर प्रस्तुत किया। वहीं ओलम्पिक में गोल्डन पदक लाने वाले खिलाड़ी के सम्मान में रूद्रनाथ रूद्र ने एक बार फिर भारत ने अपना शौर्य दिखया है, विश्व पटल पर ध्वज अपना नीरज ने फहराया को समर्पित किया। मैकश आजमी ने इस नयन का नीर से संबंध है, प्यार का भी पीर से संबंध है, डा अम्ब्ररीश श्रीवास्तव ने सड़क के किनारे एक वीरान झोपड़ी के बाहर एक बूढ़ा एक कफन के लिए सुनाया। आशा साहनी ने आशा हूं मैं आशाओं के गीत सुनाने आई हूं के माध्यम से आशा का संचार किया। शैलेन्द्र राय अटपट बरसे फुहर रसगारी हो, रामा बेलना से मारी, बेलन से मारी ह, देहिया के भारी सुनाया। सावन मास को समर्पित विजयेन्द्र श्रीवास्तव धरती ने ओढ़ ली धानी चुनरिया कांधे पर कांवर ले दौड़े कांवरिया सुनाया। राजकुमार आर्शीवाद ने मैं भी हूं दिवाना कैसा सनम, रख दूं मैं दिल वहां पर जहां रख दे तू कदम प्रस्तुत किया। भालचन्द त्रिपाठी ने गम के चेहरे पर नूर हो जाये, आईना चूर-चूर हो जाय, उसकी शमिन्दगी जरा कम हो, मुझसे कोई कसूर हो जाय सुनाया। दिनेश कन्नौजिया ने बदरा बरस-बरस के मनवा के झकझोरल करेला, अजय पांडेय ने गाड़ी बंगला आता है पैसो से पर खुशियों को कोई खरीद नहीं सकता।, विजय यादव ने जब मैंने दुनिया को लाचार देखा, पड़ा हुआ शव भाई का बहन का विलाप देखा, इसके बाद महेन्द्र मृदुल ने आदमी हम बने यह हुनर दे कलम, इस जहां में असर आज कर दें कलम प्रस्तुत किया। वहीं अजय गुप्ता ने जिन्दगी जैसे चले जी हम चलाना जानते है, हम गरीबी मैं भी जीकर मुस्कुरानाजानते है सुनाया। शशिभूषण प्रशांत ने उमगी, थमगी ताल तलैया, वह पीपल की छांव, ढूंढ रहा है एकाकी मन, वह सुधियों का गांव सुनाया। उमेश चन्द मुंहफंट ने जोखू के परिवार नियोजन के जब सिच्छा देहली पर सुनाकर व्यंग कसा। सूर्यभान सूर्य ने ओ सांवरि तेरे बिन तड़पे जिया, बालेदीन बेसहारा यकीन कीजिए मैं आप की नस-नस को जानता हूं सुनाया। वहीं देवेन्द्र तिवारी ने नेह का नीर कण-कण बरसने लगा, उर क अंतर मे एहसास पलने लगा। अन्य कवियां में प्रभात, संजय श्रीवास्तव,अनिकेत, रोहित कृष्णा, अनवर आदि शामिल रहे। अंत में अध्यक्षीय संबोधन में कुंद ने साहित्यिक को उर्वरा कर जनपद का नाम राष्ट्रीय शिक्षित पर गौरवान्वित करने की बात कहीं इस मौके पर कई श्रोतागण मौजूद रहे।
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