कल से गाजीपुर के कासिमाबाद में हूँ. डेढ़ दशक पहले गाजे बाजे के साथ ठाकुर की बारात यही आयी थी. 19 अप्रैल को एक और बारात आने वाली है, आखिरी साली की. आज उसकी तिलक चढ़ाने वाराणसी जाना है. सुबह जब तड़के उठा तो गाँव के बाहर शिवाला पर टहलते चला गया, योगासन के बाद देखा- एक बुढ़िया सामने महुआ के पुरातन पेड़ के नीचे महुआ का फूल बिन रही थी. पेड़ के नीचे महुआ के फूलों की पीली पीली चादर सी बिछी थी. देख मन हुआ महुआ बिना जाए. फिर खुद भी बिनने लगा, कोई घंटा भर के बाद लगभग 5-7 किलो बिन पाया, कुछ बूढ़ी माँ से बिनवाया, बदले में पचास रूपये लीं.
महुआ एक आयुर्वेदिक वृक्ष है. जिसकी लकड़ी इमारती प्रयोग में होती है, लेकिन इसके बीज और फल आयुर्वेदिक दवा के रूप में प्रयोग होता है. बचपन में बाबा को इसके ‘लाटा’ चाव से खाते देखा था, दादी या माँ कोई भी बना कर देती थीं. इसको सुखाकर दूध में खौलाकर पीते भी देखा था. देखा था- चैत माह में भोर के समय महुआ के पेड़ के नीचे महुआ बीनते गांव के गांव. आधी रात से ही टप- टप की आवाज महुआ के पेड़ के नीचे से आने लगती है. कोई 20-25 दिनों तक लगातार महुआ चुने की आवाज सुनाई पड़ती थी. यह स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होता है. कई रोगो के लिए तो यह रामबाण है. यह धरती का एक प्रकार का अमृत है. जिसके सेवन से अनेक रोगों का नाश होता है. प्राचीन काल से आदिवासी समाज के जीवन में तो यह अनिवार्य हिस्सा की तरह रहा है. इसी को खाकर वह जंगली जीवन से सभ्यता की ओर कदम बढ़ाया.. आदिवासी समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाए जाते हैं.विशेष प्राकृतिक अवसरों पर आज भी महुआ के झाड़ की पूजा की जाती है।”
महुआ बीनने जाना गांवों और आंचलिक जीवन की एक लोक संस्कृति भी रही है. यह ग्रामीण जीवन का अनिवार्य अंग था.
“मधुर मधुर रस टपके, महुआ चुए आधी रात
बनवा भइल मतवारा, महुवा बिनन सखी जात।”
इसकी मदिरा भी बनती है, जिसे महुआ की शराब या ठर्रा भी कहते हैं, मध्यप्रदेश का झाबुआ जिले में यह खुब बनती है और इसमें कोई केमिकल भी नहीं डाला जाता है.
आज भी वह उन्हीं गुणों के साथ काम करता है, बशर्ते कि आप इसके गुणों को जानें..
स्पर्म काउंट बढ़ाने में असरदार …
नसों की कमजोरी को करे दूर …
हाइरपरटेंशन से बचाव …
सूखी खांसी का इलाज …
एक्जिमा से करे बचाव …
गठिया और सिरदर्द से बचाव …
शरीर में दिलाए फुर्ती …
गैस और एसिडिटी से राहत