लखनऊ। समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के जीवन का सफर पूरा हो गया। सोमवार की सुबह करीब 8.30 बजे उन्होंने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में अंतिम सांस ली. इसके साथ ही समाजवादी विचारधारा और उत्तर प्रदेश की सियासत के एक युग का समापन हो गया है. 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन कर मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन को अलग दिशा दी थी. तब से वह तीन बार सीएम बने, देश के रक्षा मंत्री भी बने थे। लेकिन चौथी बार जब सीएम बनने का मौका 2012 में मिला तो अपनी जगह पर बेटे को विरासत सौंप दी. अखिलेश यादव ने पिता के आशीर्वाद पर सीएम बनने के बाद 5 साल का कार्यकाल पूरा जरूर किया, लेकिन उसके बाद वह 2017 में वापस नहीं लौटे.
यही नहीं 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके अलावा 2014 और 2019 के आम चुनाव भी अखिलेश यादव के लिए तमाम प्रयासों के बाद भी निराशाजनक ही रहे. ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक उन्हें सीख देते रहे हैं कि वह अपने पिता मुलायम सिंह यादव से सीख ले सकते हैं. अखिलेश यादव की सियासत में कई बार भावुकता में लिए गए फैसले नजर आते हैं. इसके अलावा वह व्यक्तिगत और तीखे हमले भी विरोधियों पर करते रहे हैं. इस मोर्चे पर वह मुलायम सिंह यादव से सीख ले सकते हैं.
उन्होंने किसी भी नेता पर निजी हमले नहीं किए. राम मंदिर आंदोलन हो या फिर मायावती से अदावत के दिन, मुलायम सिंह यादव ने विरोधियों पर कभी निजी हमले नहीं किए. इसके अलावा मुलायम सिंह यादव की एक खूबी थी कि वह हमेशा संभावनाएं बनाकर रखते थे. उन्होंने 2003 में भाजपा का साथ लिया तो वहीं परमाणु करार के मद्दे पर यूपीए की गिरती सरकार को सहारा भी दिया. यही नहीं मुलायम सिंह यादव हमेशा टीम मैन कहे जाते थे। मोहन सिंह, जनेश्वर मिश्र, आजम खां, अमर सिंह, राजा भैया समेत ऐसे तमाम नेताओं को वह साथ लेकर चलते थे, जो परस्पर विरोधाभासी थे. लेकिन मुलायम सिंह ने सबको एक मंच पर ही लाने की हमेशा कोशिश की. यही नहीं मुलायम सिंह यादव जब सक्रिय रहे, परिवार में भी कोई रार नहीं होने दी.
मुलायम सिंह यादव ने जब 2012 में अखिलेश यादव को सीएम का पद दिया तो छोटे भाई शिवपाल को भी पीडब्ल्यूडी जैसा अहम मंत्रालय दिया और प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया. रामगोपाल को दिल्ली की सियासत का जिम्मा सौंप दिया. आजम खां और अमर सिंह को भी साध कर रखा. इस तरह मुलायम सिंह यादव की सियासत में सबके लिए जगह बनी थी. यही एकता राजनीति में संदेश देने के लिए अहम थी. इस मामले में अखिलेश यादव अपने पिता से पीछे ही दिखे हैं. लिहाजा उन्हें अपने दिवंगत पिता की विरासत के साथ ही सियासत को भी समझना और सीखना होगा.