मजदूरों का गुनहगार कौन: राज्यों के शर्मनाक रवैये से मजबूर होकर मजदूर पलायन के लिए विवश हुए

अपने गांवों-कस्बों-शहरों की ओर पैदल, ट्रकों, कंटेनरों से लौटते दुर्भाग्यशाली कामगार सड़कों पर कुचलकर, गाड़ियों की टक्कर से या फिर रेल लाइन पर कटकर जान गंवा रहे हैं, पर लगता नहीं कि किसी की परेशानी पर बल पड़ रहा है। जब महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 श्रमिक रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर मर गए और देश भर में हाहाकार मचा तो लगा कि यह इस कड़ी की अंतिम त्रासद घटना साबित होगी किंतु ऐसा नहीं हुआ।

सड़क दुर्घटनाओं में मजदूरों के मरने-घायल होने का सिलसिला कायम

उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में करीब 25 मजदूरों की मौत का समाचार मिलने के बाद से सड़क दुर्घटनाओं में मजदूरों के मरने-घायल होने की खबरों का सिलसिला कायम है। यदि आप लॉकडाउन के समय से गणना करेंगे तो सड़कों पर जान गंवाने वालों कामगारों की संख्या 150 से ऊपर पहुंच गई है। ये घटनाएं अगर हमें विचलित नहीं करतीं तो मान लेना चाहिए कि हम मनुष्य हैं ही नहीं। सड़कों पर पैदल चलते कामगारों के दृश्य व्यथित करने वाले हैं।

झुंड के झुंड लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को विवश

यह आसानी से गले उतरने वाली स्थिति नहीं है कि झुंड के झुंड लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को विवश हो जाएं। अपना सामान सिर पर उठाए और बच्चों को गोद में लिए महिलाएं भी पैदल चलने को विवश हैं। यह समझ से परे है कि एक समय जब लॉकडाउन में किसी भी सवारी की व्यवस्था नहीं थी तब तो लोगों के सामने पैदल चलने का ही विकल्प था, लेकिन अब तो केंद्रीय गृह मंत्रालय की गाइडलाइन है। राज्यों की मांगों पर केंद्र सरकार श्रमिक स्पेशल रेलें चला रही है। आखिर अभी भी मजदूर पैदल क्यों चल रहे हैं?

संकट की घड़ी में मजदूरों की पीठ पर कोई हाथ रखने नहीं पहुंचा

लॉकडाउन आरंभ होने के समय लगता था कि ज्यादातर मजदूर नासमझी कर रहे हैं। जब केंद्र और राज्य सरकारें इनके खाने-पीने से लेकर रहने तक की व्यवस्थाएं कर रही हैं तो इन्हें लॉकडाउन तोड़ने की जरूरत नहीं है। ये अपना, परिवार एवं दूसरों की जान भी जोखिम में डाल रहे हैं किंतु अब उन्हें दोष देने का कोई कारण नहीं है। उनकी आपबीती सुनकर यह सच स्पष्ट हो रहा कि ज्यादातर के पास संकट की घड़ी में कोई पीठ पर हाथ रखने नहीं पहुंचा।

मजदूरों  को भोजन नहीं, पैसा नहींं, मकान मालिक का किराए का दबाव तब विकल्प क्या बचता

अगर उनको भोजन नहीं मिलेगा, नियोक्ता उन्हें उनके हाल पर छोड़ देंगे और कहेंगे कि अब हमारा काम नहीं चल रहा, तुम भी चले जाओ, मकान मालिक किराये के लिए दबाव डालेगा तो फिर विकल्प क्या बचता है? साफ है कि यह राज्य सरकारों की आपराधिक विफलता है।

कुछ राज्यों ने जिम्मेवारी का ठीक से निर्वहन नहीं किया

ऐसा लगता ही नहीं है कि किसी की कोई जिम्मेवारी है। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में दुख प्रकट करते हुए कहा था कि कुछ राज्यों ने जिम्मेवारी का ठीक से निर्वहन नहीं किया और उन्हें लॉकडाउन में जो जहां है वहीं ठहर जाए की नीति बदलने को मजबूर होना पड़ा। बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर हैं जिनको पता ही नहीं कि उनके लिए विशेष रेलें चलाई जा रहीं हैं या उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में उनके लिए विशेष व्यवस्था है।

एक कामगार ने कहा- किराया नहीं देने पर मकान मालिक ने सारा सामान रख लिया और निकाल दिया

दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर जुटी भीड़ में एक नौजवान कामगार टीवी कैमरे पर कह रहा था कि किराया नहीं देने से मकान मालिक ने सारा सामान रख लिया और निकाल दिया। क्या दिल्ली सरकार को यह सब दिख नहीं रहा?

केजरीवाल कामगारों से दिल्ली छोड़कर न जाने की अपील तो करते हैं, लेकिन रोकने की व्यवस्था नही

केजरीवाल कामगारों से पत्रकार वार्ता में दिल्ली छोड़कर न जाने की अपील करते हैं, लेकिन जाते हुए कामगारों को रोकने और उनके खाने-पीने की व्यवस्था के लिए न स्वयं आगे आते हैं न उनकी सरकार के अन्य लोग। यह एक उदाहरण समझने के लिए पर्याप्त है कि राज्य सरकारें मजदूरों से कैसा व्यवहार कर रही हैं। आखिर महाराष्ट्र, राजस्थान आदि से लोग पैदल कैसे निकल रहे हैं? इनमें ऐसे लोग कम ही हैं जिनके पास कैसे जाना है, कहां से जाना है इसकी सही जानकारी हो। इनको रास्ता दिखाने की जिम्मेवारी किसकी है? रेलों के किराये का 85 प्रतिशत भाग केंद्र वहन कर रहा है। ऐसा लगता है कि कई राज्य अपने हिस्से का 15 प्रतिशत भी नहीं देना चाहते और इसीलिए श्रमिकों को उनके हाल पर छोड़ रहे हैं।

अगर प्रशासन चाह ले तो मजदूर पैदल जा ही नहीं सकते

अगर प्रशासन चाह ले तो मजदूर पैदल जा ही नहीं सकते। उन्हें रोककर प्रक्रिया पूरी कराकर रेलों पर बिठाया जा सकता है। रेल मंत्री कह रहे हैं कि इसके लिए 1200 और रेलें हैं, लेकिन कई राज्य सरकारें ले नहीं रहीं। पश्चिम बंगाल, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य रुचि नहीं दिखा रहे। उत्तर प्रदेश के लिए 487 रेलें चली हैं तो बिहार के लिए 254 एवं 79 मध्य प्रदेश के लिए।

यह एक उदाहरण है यह साबित करने के लिए कि राज्य किस तरह से व्यवहार कर रहे हैं

शेष राज्यों में काफी हो हल्ला होने के बाद राजस्थान से 22 रेलें चली हैं। पश्चिम बंगाल के लिए तय 105 रेलों में से पहले केवल दो गईं। जब केंद्रीय गृहमंत्री ने मुख्यमंत्री से बात की तो पांच रेलें और गईं। अगर 15 जून तक इनको लगातार चलाया जाए तब भी दो लाख से ज्यादा लोग नहीं जा सकते, जबकि करीब 40-50 लाख कामगार दूसरे प्रदेशों में हैं। यह एक उदाहरण है यह साबित करने के लिए कि राज्य किस तरह से व्यवहार कर रहे हैं।

आरंभ से ही कई राज्यों का रवैया शर्मनाक रहा

वास्तव में आरंभ से ही कई राज्यों का रवैया शर्मनाक रहा है। केंद्र ने तीन महीने का राशन दिया, दूसरे राज्यों के कामगारों के लिए राशि निर्गत की, सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं सेवा के लिए आगे आईं, लेकिन ये समन्वय बिठाकर काम करने की जगह अनदेखी करते रहे ताकि इनके सिर से भार हटे और मजबूर होकर लोग पलायन को विवश हो जाएं।

ज्यादातर सरकारों का व्यवहार अमानवीय रहा

ज्यादातर सरकारों का व्यवहार अमानवीय रहा है। कुछ राज्यों ने तो ऐसी स्थिति पैदा की कि दूसरे राज्यों के श्रमिक भागने को मजबूर हो जाएं। अगर महाराष्ट्र सरकार की सोच यह है कि इसी बहाने गैर-महाराष्ट्रियन निकल जाएं तो यह खतरनाक है। इस तरह का अपराध करने वाले राज्यों के खिलाफ केंद्र को सख्ती से पेश आना चाहिए।