TV20NEWS || Ballia : नदियों को जोड़ने की कला और ज्योतिष का हुआ जन्म, चौंका देगा ददरी मेले का इतिहास!

बलिया। विश्व प्रसिद्ध ददरी मेले का नाम तो आपने सुना ही होगा। यह मेला करीब 10 दिन पहले ही शुरू हो चुका है। अभी यहां नंदीग्राम शुरू हुआ है, जहां पशुधन की खरीद फरोख्त शुरू हुई है। 15 नवंबर यानी कार्तिक पूर्णिमा से यहां मीना बाजार भी शुरू हो जाएगा। इस मेले का ना केवल ऐतिहासिक महत्व है बल्कि इसका पौराणिक महत्व भी है। सबसे बड़ी बात यह कि इस समय दुनिया भर में नदियों को जोड़ने की योजनाएं चल रही है, उसकी नींव इसी ददरी मेले में पड़ी थी। क्या आप जानते हैं कि यह मेला कब और कैसे शुरू हुआ? यदि नहीं, तो यहां हम आपको बता रहे हैं। इस मेले का जिक्र मत्स्य पुराण और पद्म पुराण में मिलता है।
कथा आती है कि भगवान नारायण के वक्ष पर लात मारने के बाद भृगु ऋषि को बहुत ग्लानि हुई। इसके बाद वह बलिया की धरती पर आए और गंगा के किनारे आश्रम बनाकर खगोल एवं ज्योतिष शास्त्र पर रिसर्च करने लगे। उसी समय से बलिया और गंगा के इस तटवर्ती क्षेत्र को भृगु क्षेत्र कहा जाता है। ज्योतिषीय गणनाओं के दौरान ही महर्षि भृगु ने देखा कि कलियुग के प्रारंभिक चरण में गंगा की जलधारा थम जाएगी। यह देखकर उन्हें चिंता हुई और अपने बेहद प्रिय शिष्य दर्दर मुनि से सलाह किया। उस समय भृगु ऋषि ने विचार किया कि अयोध्या तक आ रही सरयू की जलधारा को खींचकर गंगा में मिला दिया जाए तो गंगा की जलधारा लगातार बनी रहेगी।
इसी सोच के साथ करीब 7000 ईसा पूर्व दोनों गुरु चेले अयोध्या पहुंच गए। वहां इन्होंने महर्षि वशिष्ठ के सामने यह प्रस्ताव रखा। वहीं महर्षि वशिष्ठ भी भृगु मुनि की भविष्यवाणी सुनकर चिंतित हो गए। उन्होंने तत्काल नदी जोड़ने के ऑपरेशन को हरी झंडी दे दी। इसके बाद भृगु मुनि द्वारा खींचे गए नक्शे के आधार पर दर्दर मुनि ने सरयू की जलधारा को खींचते हुए बलिया में गंगा की धारा से मिला दिया। पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक जैसे ही सरयू की धारा और गंगा की धारा आपस में टकराई तो दर-दर घर-घर की आवाजें आने लगीं। इन्हीं आवाजों को सुनकर महर्षि भृगु ने उस स्थान का नाम तो दर्दर रख दिया। यह उनके शिष्य का नाम भी था। इसी प्रकार जो जलधारा अयोध्या से निकलकर बलिया तक आई, उसे घर्घर यानी घाघरा कहा।
पौराणिक साक्ष्यों के मुताबिक घाघरा और गंगा का यह संगम कार्तिक महीने की पूर्णिमा का हुआ था। उसी उपलक्ष्य में बलिया के दर्दर क्षेत्र में भव्य और दिव्य मेले का आयोजन किया जाता है। दर्दर भूमि पर आयोजन की वजह से ही इस मेले को ददरी मेला कहा जाता है। चूंकि उस समय भृगु ऋषि का ज्योतिष विज्ञान पर रिसर्च पूरा हो चुका था और उन्होंने इसी रिसर्च के आधार पर दुनिया का पहला ज्योतिष शाष्त्र पर आधारित ग्रंथ भृगु संहिता की रचना कर ली थी। इसलिए उन्होंने इस ग्रंथ का इसी मेले में लोकार्पण किया और अपने सूत्रों का सार्वजनिक परीक्षण भी किया था।
ददरी मेले के दो हिस्से हैं। एक महीने चलने वाले इस मेले के तहत एक नवंबर से ही पशु मेला शुरू हो गया है। पशु मेले में भी दो हिस्से हैं। एक हिस्से में तो हाथी, घोड़े, गाय, भैंस समेत अन्य प्रजाति के जानवरों की खरीद फरोख्त होती है। वहीं दूसरे हिस्से में केवल गदहों की बिक्री होती है। इसे गरदह मेला कहा जाता है। इस गरदह मेले की एक अनोखी खासियत है। यहां देश भर से धोबी जनजाति के लोग गरहे खरीदने और बेचने के लिए आते हैं। यहीं पर उनकी आपस में मुलाकात होती है और यहीं उनके बेटे बेटियों की शादी भी हो जाती है।
पद्म पुराण के दर्दर क्षेत्र महात्म्य खंड के अनुसार भृगु क्षेत्र यानी बलिया और गाजीपुर की लोकेशन ऐसी है कि कार्तिक महीने में जब सूर्योदय होता है तो सूर्य की किरणें धरती पर क्षैतिज पड़ती हैं। ऐसे में गंगा और घाघरा के संगम पर पानी के साथ टकराकर यह किरणें पॉजिटिव एनर्जी जेनरेट करती हैं। इन किरणों में प्रभाव में आते ही कई तरह की बीमारियों का क्षय हो जाता है। खासतौर पर पुरुषत्व में वृद्धि होती है। इसी मान्यता के तहत कार्तिक पूर्णिमा को यहां सबसे बड़ा नहान होता है। इसमें शामिल होने के लिए समूचे उत्तर भारत से लोग आते हैं। मत्स्य पुराण के मुताबिक शरद पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा के बीच जो भी व्यक्ति यहां स्नान करता है, उसके सभी पाप कट जाते हैं।
समय के साथ इस मेले के क्षेत्र और प्रभाव दोनों में ही कमी आई है। मुगल काल में इस मेले की चर्चा पूरे जंबूद्वीप में थी। उन दिनों यहां लगने वाले मेले में वैश्विक व्यापार होता था। ढाका से मलमल, लाहौर और कराची से मसाले, ईरान से घोड़े, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, और नेपाल से गधे यहां पर खरीद फरोख्त के लिए लाए जाते थे। चीनी यात्री फ़ाह्यान ने भी इस मेले का जिक्र अपनी किताब में किया है।