मजदूरों की पीर: रोजी रोटी के लिए बाहर निकले तो भइया बन गए, संकटकाल में लौटे तो मुंबइया हो गए

मेरे पिया गए रंगून। वहां से किया है टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है।’ साल 1949 में बनी ‘पतंगा’ फिल्म का यह गाना हर पीढ़ी के लोगों ने सुना होगा, मगर इस दर्द का मर्म समझने वालों की पीढ़ियों का सफर अब भी जारी है। कोरोना संकट ने एक बार फिर साबित किया कि यह एक गाना ही नहीं, बल्कि देश की आबादी के एक बड़े हिस्से के जीवन का भोगा हुआ यथार्थ भी है। जरा प्रवासी मजदूरों के जीवन पर गौर कीजिए। वे रोजी रोटी के लिए बाहर निकले तो भइया बन गए और अब इस संकटकाल में लौटे हैं तो मुंबइया हो गए। इस संकट के बीच एक यही बात अच्छी रही कि मजदूरों की यह व्यथा राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आ गई है

‘पीर पर्वत सी हुई अब पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’

प्रवासी मजदूरों की व्यथा को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आने में कई दशक लग गए। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो ‘पीर पर्वत सी हुई अब पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ इन मजदूरों का जीवन एक अजीब दुष्चक्र में फंस गया है। अपने गांव-देस में रोजगार के मौके हैं नहीं।

जहां गए अपना पसीना बहाया, लेकिन उस राज्य ने उन्हें हमेशा ‘बाहरी’ समझा

काम की तलाश में जहां गए और अपना पसीना बहाया, उस राज्य ने उन्हें हमेशा ‘बाहरी’ समझा। इस बात का कोई असर नहीं हुआ कि जो काम उनके अपने नहीं कर पाए वह ये ‘बाहरी’ कर रहे हैं, प्रदेश को आगे ले जाने का।

प्रवासी श्रमिकों का दर्द, क्या लौटकर न जाने का विकल्प उनके पास है?

इन प्रवासी श्रमिकों का यह दर्द यहीं खत्म नहीं होता। जब घर लौटकर आते हैं तो उनका स्वागत मेहमान की तरह होता है। ज्यादा समय तक रुक जाएं तो गांव वाले ही नहीं परिवारीजन भी शक की नजर से देखते हैं। कहीं हमेशा के लिए तो नहीं आ गए। यही नहीं बाहर से लौटे इन मजदूरों को बीमारी के वाहक बताकर तिरस्कृत किया जा रहा है। गांव में परिवार का जीवनयापन उसी पैसे पर निर्भर है, जो वे पेट काटकर भेजते रहे। वे इस संकट की घड़ी में घर लौटे हैं। अब वापस जाना नहीं चाहते, लेकिन सवाल यही है कि क्या लौटकर न जाने का विकल्प उनके पास है?

प्रवासी मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार से है

प्रवासी मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार से है। दोनों कृषि पर निर्भर प्रदेश थे। उत्तर प्रदेश में तो शहरीकरण और औद्योगीकरण हुआ, पर बिहार आज भी मुख्यत: खेती पर ही निर्भर है। 2014 से पहले देश के सात प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही हुए, फिर भी देश के इस सबसे बड़े प्रदेश में अस्थिरता राजनीति का स्थाई भाव बन गई।

यूपी और बिहार के मुख्यमंत्रियों की सोच का बुनियादी फर्क

सबसे लंबे समय तक कांग्रेस ने राज किया, मगर अपने ही किसी मुख्यमंत्री को पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। न नेहरू के जमाने में और न ही इंदिरा के जमाने में। इसी से अंदाजा लगा लीजिए। 2007 में मायावती निर्वाचित कार्यकाल पूरा करने वाली पहली मुख्यमंत्री बनीं। उत्तर प्रदेश को लगभग पंद्रह साल तक लगातार एक ही व्यक्ति या परिवार को सत्ता में रखने का अवसर नहीं मिला। बिहार को यह सौभाग्य पिछले तीस साल से मिल रहा है। फिलहाल इन दोनों राज्यों में एक बुनियादी फर्क है। वह है इनके मुख्यमंत्रियों की सोच का फर्क।

कोरोना संकट के दौरान स्वांग की स्पर्धा में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल का कोई सानी नहीं

जो भी हो, कोरोना संकट के दौरान लोगों ने देखा कि कौन कितना और कैसा काम कर रहा है और कौन काम करने का स्वांग कर रहा है। स्वांग की इस स्पर्धा में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कोई सानी नहीं। दिल्ली से उत्तर प्रदेश और बिहार के तमाम प्रवासी मजदूरों को धकेल बाहर करने के बाद भी उनसे हालात नहीं संभल रहे। दिल्ली में गुरुद्वारे न होते तो पता नहीं कितने लोग शायद भूखे मर जाते। महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली में प्रवासी मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ये प्रवासी इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हैं।

जब प्रवासी मजदूरों को रोकने की जरूरत थी तब रोका नहीं, अब वापसी का बुलावा जा रहा 

प्रवासी मजदूरों के साथ अजीब-अजीब बातें हो रही हैं। जब हाथ थामने की जरूरत थी तो उनके नियोक्ता और स्थानीय सरकारों ने मुंह मोड़ लिया। अब उन्हें हवाई जहाज, एसी रेल और लग्जरी बसों से वापस बुलाया जा रहा है। पहले से ज्यादा और पेशगी पैसा देने का प्रस्ताव है। जाहिर है कि यह सबके लिए नहीं। जो लौटकर आए हैं उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्र के हैं। इनमें भी बड़ी संख्या दिहाड़ी मजदूरों की है। सबके लिए फिर से काम का अवसर बनने में समय लगने वाला है।

यूपी एक बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा, 11 लाख श्रमिकों को काम देने का भरोसा

यह जो बीच का समय है वह उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और ओडिशा की सरकारों के लिए अवसर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार इस अवसर की चुनौती स्वीकार करने में सबसे आगे दिख रही है। योगी सरकार ने माइग्रेशन कमीशन बनाने की घोषणा की है। लौटकर आए मजदूरों के कौशल से जुड़े आंकड़े इकट्ठा कर लिए गए हैं। इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन, फिक्की, लघु उद्योग भारती और नारडेको के साथ राज्य सरकार ने एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं। इन संस्थाओं ने ग्यारह लाख श्रमिकों को काम देने का भरोसा दिया है। राज्य में तीन नए एक्सप्रेसवे बन रहे हैं। अगले तीन-चार वर्षों में उत्तर प्रदेश देश का का पहला राज्य होगा जहां पांच एक्सप्रेसवे होंगे। स्पष्ट है कि प्रदेश एक बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है। यदि भूमि और श्रम सुधारो की राह खुले तो यह रफ्तार और तेज होगी।

पलायन को रोकने में स्वरोजगार की सबसे बड़ी भूमिका

गांव से शहरों की ओर होने वाले पलायन को रोकने में स्वरोजगार की सबसे बड़ी भूमिका होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाला माइग्रेशन कमीशन ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार और लघु उद्योग के जरिये उन्हें आजीविका के साधन उपलब्ध कराएगा। नोबेल पुरस्कार विजेता और बांग्लादेश में माइक्रो फाइनेंस के प्रणेता मोहम्मद यूनुस ने भारतीय उद्योगपतियों से कहा भी है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को शहरी अर्थव्यवस्था का पुछल्ला बनाने के बजाय उसे अलग पहचान देने की जरूरत है। उन्होंने इसे देसी माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के लिए सुनहरा अवसर बताया है कि वे अपनी रणनीति नए सिरे से बनाएं और यह न भूलें कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का निर्माण ही माइक्रो फाइनेंस का ध्येय है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने से गांधी जी का होगा सपना पूरा

अब जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने से जुड़ा गांधी जी का सपना पूरा हो। आजादी के बाद से ही देश की आर्थिक नीतियों की गलत दशा-दिशा की शास्त्रीय बहस में जाए बिना नतीजे पर ध्यान देना चाहिए। एक बूढ़े घसियारे ने फिराक गोरखपुरी से कहा था कि ‘बाबू सब ज्ञान रोटिअइ देती है।’ फिराक ने अपने साथी से कहा कि ‘देखो मियां कितनी बड़ी हकीकत बोल गया बूढ़ा। वेद वाक्य बोल गया वेद वाक्य।’