कहा जाता है कि महान लोगों की अनेक पहचानें होती है महाराणा प्रताप एक ऐसी शख्सियत है जिन्होंने मृत्यु की नाद पर जीवन को थिरकना सिखाया। जिन्होंने वीरता के प्रतिमानों को कई नए आयाम दिए। महाराणा प्रताप का संघर्ष सदैव प्रेरणादायी रहेगा।
राणा प्रताप के समक्ष दो रास्ते थे, एक अन्य शासकों की भाँति स्वाभिमान का समर्पण कर शाही जिंदगी जीना, दूसरा इनका संघर्ष-पूर्वक जीवन जो उन्होंने जीया और आज हमें 450 वर्ष बाद भी प्रेरणा दे रहा है।
विश्व के अद्यतन इतिहास में शायद ही कोई ऐसा शासक रहा हो जिसकी जनता इतनी विकट परिस्थितियों के बावजूद भी अत्यंत प्रतिबद्धता से शासक के साथ खङी रही। 30 से अधिक वर्षों तक युद्धों के कारण मेवाड़ उजड़ा हुआ था, जनता को भी अपने घरों को छोड़कर पहाड़ों पर जीवन व्यतीत करना पड़ा। जिस जनता ने 30000 से अधिक लोगों का जनसंहार देखा हो फिर भी उस जनता की प्रताप के स्वाभिमान एवं स्वाधीनता की चाह के प्रति आशक्ति ही प्रताप को जनप्रिय एवं महान बनाती है।
क्या वर्तमान समय में किसी व्यक्ति या नेता से ऐसी उम्मीद की जा सकती है ? संघर्ष एवं सुविधाओं में प्रत्येक व्यक्ति सुविधाओं का ही वरण करेगा। प्रताप के समक्ष जहां एक और अधीनता के बदले आधा हिंदुस्तान का साम्राज्य मिलना था वहीं दूसरी ओर जंगलों में भटकते हुए संघर्ष के 30 वर्ष। लेकिन राणा प्रताप ने अधीनता के बदले संघर्ष को चुना, स्वाभिमान को चुना।
राणा प्रताप का इतिहास हल्दीघाटी के युद्ध से बहुत आगे तक विस्तृत है किंतु कुत्सित विचारधारा के लोगों द्वारा इसे हल्दीघाटी तक ही सीमित कर दिया गया। 1576 ई. में हुआ हल्दीघाटी युद्ध अनिर्णीत रहा था जिसमें एक ओर 20000 मेवाड़ी सैनिक थे वहीं दूसरी ओर 80000 मुगल सेना थी। हल्दीघाटी के बाद 1577 ई. से 1582 ई. तक निरंतर अनेकों संघर्ष होते रहे। एक नई छापामार युद्ध प्रणाली से राणा प्रताप मुगल सैनिकों को निरंतर हराकर कमजोर करते रहे। 1582 ई. में दिवेर युद्ध में राणा प्रताप की सेना ने अकबर की सेना को परास्त कर दिया। दिवेर युद्ध ने मुगलों का मनोबल इस तरह से तोड़ दिया था, परिणाम स्वरूप मुगलों को मेवाड़ में स्थापित सभी 36 थानों को छोड़कर भागना पड़ा। 1585 ई. से 1597 ई. के बीच राणा प्रताप ने चित्तौड़गढ़ एवं मांडल पुर को छोड़कर संपूर्ण मेवाड़ पर पुनः अपना राज्य स्थापित कर लिया। कर्नल टाॅड ने अपनी पुस्तक ”एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान” में हल्दीघाटी को मेवाड़ की थर्मोपोली और दिवेर युद्ध को मेवाड़ का मैराथन बताया। टाॅड लिखते हैं “आल्प्स पर्वत के समान अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं जो राणा प्रताप की किसी न किसी वीर कार्य, उज्जवल विजय या उससे अधिक कीर्ति युक्त पराजय से पवित्र न हुई हो।
राणा प्रताप एक शासक से बढ़कर मानवता के पुजारी थे उन्होंने समाज के दलित, दमित, पिछड़े वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ा और उन्हें सामाजिक पहचान दिलाई। संकीर्णता से ऊपर उठकर सर्वधर्म समभाव को अपनाया। राष्ट्र-सम्मान तथा स्वतंत्रता के समक्ष निजी-हितों की भी तिलांजलि दी, यही बातें हैं जो राणा प्रताप को एक विलक्षणता देती है। महाराणा प्रताप की सेना में 4 सेनापति थे, जिसमें समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व था। पूंजा भील जैसे आदिवासी बंधु को उन्होंने सेनापति का दर्जा दे, भीलों की दशा सुधारी, उन्हें मुख्यधारा में जोङा। वहीं मुस्लिम धर्म के हकीम खां सूरी को भी अपना सेनापति बनाया, जालौर का ताज खान भी उनका सहयोगी था।
अकबर ने अपने नवरत्न अब्दुल रहीम खानखाना को मेवाड़ पर आक्रमण हेतु अजमेर का सूबेदार बनाया था। खानखाना मेवाड़ के समीप शेरपुर में डेरा डालकर गतिविधियां संचालित करने लगा। राणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह को ज्ञात होने पर उसने शेरपूर किले पर आक्रमण कर लूट लिया तथा रहीम खानखाना के परिवार को भी बंदी बना महाराणा प्रताप के समक्ष प्रस्तुत किया जिसमें रहीम खान-खाना के पत्नी-बच्चे भी शामिल थे, महाराणा प्रताप यह देखकर क्रोधित हुए तथा खानखाना के परिवार को ससम्मान पुनः लौटा दिया। शत्रु पक्ष के रहीम खानखाना भी इस उदारता से अत्यंत प्रभावित हुये। महाराणा प्रताप के बारे में अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के ये यादगार और बेहद दिलचस्प शब्द हैं-
ध्रम रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसाण।
अमर बिसंभर ऊपरे रखिओ नहचो राण॥
अर्थात् धर्म रहेगा, धरती रहेगी, परन्तु शाही सत्ता सदा नहीं रहेगी। अपने ईश्वर पर भरोसा करके राणा ने अपने सम्मान को अमर कर लिया है।
राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम, स्वाभिमान स्वाधीनता की प्रतिबद्धता, सामाजिक समरसता, नारी सम्मान, दलित-दमित उद्धार इन सभी बातों ने प्रताप को अविस्मरणीय बनाया जो आज भी प्रेरणा के पुंज है।
16 वीं सदी में भारत की सबसे बड़ी शक्ति मुगल साम्राज्य के समक्ष मेवाड़ भौगोलिक, आर्थिक एवं सैन्य शक्ति से अत्यंत छोटा एवं कमजोर था, फिर भी जिस जीवटता से स्वाभिमान के पुजारी महाराणा प्रताप ने स्वतंत्रता का बिगुल बजा कर स्वाधीनता की लौ को जिंदा रखा, उसने कुछ ही समय में मुगलों की सत्ता की नींव को कमजोर कर दिया। उनकी प्रेरणा से आगे अनेक शासकों ने स्वाधीन राज्यों की स्थापना की। आधुनिक काल में भी राणा प्रताप क्रांतिकारियों के प्रेरणा पुंज थे। हल्दीघाटी क्रांतिकारियों का तीर्थ स्थल बन गई, अनेकों क्रांतिकारी हल्दीघाटी की मिट्टी से स्वाधीनता की शपथ लेते। राणा प्रताप की वीरता, अङिगता, स्वाधीनता की प्रतिबद्धता ने राष्ट्रभक्त क्रांतिकारीयों के लिए चिंगारी का काम किया। गणेश शंकर विद्यार्थी, चंद्रशेखर आजाद आदि अनेक क्रांतिकारियों ने महाराणा प्रताप के मार्ग पर वतन की खातिर सर्वस्व त्याग दिया। कई क्रांतिकारियों ने राणा प्रताप की छापामार युद्ध प्रणाली को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का मुख्य हथियार बनाया।
9 मई 1540 को जन्में महाराणा प्रताप मात्र 57 वर्ष की आयु में विश्व के समक्ष अनेकों आदर्शात्मक उदाहरण छोड़ कर चले गए। आज
महाराणा प्रताप एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक विचारधारा बन गये जो मानव जाति को सामाजिक समानता, समरसता, समावेशी विकास, दलित-उद्धार, नारी-रक्षा तथा स्वाभिमान एवं स्वाधीनता की रक्षा के लिए सर्वस्व त्याग की युगों युगों तक प्रेरणा देती रहेगी, अंत में-
गिरा जहाँ पर खून वहाँ का, पत्थर-पत्थर ज़िन्दा है..
जिस्म नही है मगर नाम का, अक्षर-अक्षर ज़िन्दा है..
जीवन में यह अमर कहानी, अक्षर-अक्षर गढ़ लेना,
शौर्य कभी सो जाए तो, राणा प्रताप को पढ़ लेना।
अदम्य साहस, समर्पण, बलिदान, स्वाभिमान।