कोरोना के बाद की दुनिया: शिक्षा के क्षेत्र में ढांचागत सुधार करके भविष्य को बेहतर बना सकते हैं

लॉकडाउन के बाद जब देश अनलॉक होने की प्रक्रिया में है तो अधिकांश लोग राहत और बेचैनी की मिश्रित भावनाओं से भरे हुए हैं। हमारे यहां दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन हुआ। विशेषज्ञ इस अप्रत्याशित कदम के गुण-दोषों की विवेचना में जुटे रहेंगे, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि बंदिशों में ढील देने और अर्थव्यवस्था को फिर से खोले जाने पर व्यापक सहमति रही। सरकार ने जो व्यापक देशबंदी लागू की उसे भले ही आवश्यक या अनावश्यक कहा जाए, परंतु एक बात निश्चित थी कि उसे लगातार कायम नहीं रखा जा सकता था। यह बात शायद हमें कुछ देर से समझ आई।

लॉकडाउन के बाद शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन की संभावना

लॉकडाउन के बाद तमाम क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन की संभावना बनती दिख रही है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है शिक्षा। यदि हम विकसित देशों की बराबरी करना चाहते हैं तो हमारे लिए अपने मानव संसाधन ढांचे को बेहतर बनाना अनिवार्य होगा। इसमें निर्णायक पहलू यही होगा कि हमें अपने शैक्षणिक मापदंड सुधारने होंगे। यह कहने के लिए आपको भविष्यवक्ता होने की जरूरत नहीं कि अब ऑनलाइन शिक्षा के विचार को मूर्त रूप लेने का समय आ गया है।

ऑनलाइन शिक्षा को स्तरहीन कॉलेजों में निम्न स्तरीय पढ़ाई की जगह लेनी चाहि

हमारे देश में शिक्षा उद्यमियों के लिए रियल एस्टेट का दांव बनकर नहीं रह सकती। शिक्षा को इससे परे ले जाना होगा। भव्य इमारतों के उन्माद के बजाय गुणवत्तापरक अध्ययन सामग्री और शिक्षकों में निवेश बढ़ाना होगा। अब उच्च गुणवत्ता वाली ऑनलाइन शिक्षा को स्तरहीन कॉलेजों में निम्न स्तरीय पढ़ाई की जगह लेनी चाहिए। वैसे भी वर्चुअल कक्षाओं में जगह की कोई बाधा नहीं तो उसमें तमाम छात्र समाहित किए जा सकते हैं। इससे छोटे शहरों से बड़े शहरों में होने वाले छात्रों के पलायन में तत्काल कमी आएगी। छात्रों को शहर में मकान के किराये, परिवहन और रोजमर्रा के अन्य खर्चों से मुक्ति मिलेगी। परिणामस्वरूप उच्च शिक्षा किफायती बनेगी।

ऑनलाइन शिक्षा भले ही आदर्श न हो, लेकिन वैकल्पिक भरपाई करेगी

हालांकि इंटरमीडिएट तक स्कूली स्तर पर परंपरागत शिक्षा का कोई विकल्प नहीं हो सकता। बच्चे केवल अकादमिक ज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि तमाम जीवन कौशल सीखने के लिए भी स्कूल जाते हैं। फिर भी यहां ऑनलाइन शिक्षा के कई लाभ मिल सकते हैं। भारत में त्योहार, चुनाव और तमाम मौसमी कारणों से स्कूली शैक्षणिक गतिविधियों में नियमित रूप से गतिरोध पैदा होता रहता है। बीते कुछ वर्षों से प्रदूषण ने भी स्कूली कैलेंडर को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। ऐसी स्थितियों में ऑनलाइन शिक्षा भले ही आदर्श न हो, लेकिन उसके द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली निरंतरता अवश्य कुछ वैकल्पिक भरपाई करेगी।

देश में शिक्षा के समूचे तानेबाने को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत

चूंकि वर्चुअल कक्षाओं का चलन जोर पकड़ रहा है, इसलिए देश में शिक्षा के समूचे तानेबाने को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत होगी। दशकों से हमारी अकादमिक परीक्षाओं का आधार मुख्य रूप से स्मृति आधारित रहा। इससे रटंत विद्या को महत्ता मिली। बुनियादी रूप से शिक्षा के दो पहलू होते हैं। एक ज्ञान और दूसरा समझ। जहां तक ज्ञान का प्रश्न है, उसमें स्मृति की अपनी भूमिका है, जिसे कमतर नहीं आंका जा सकता। हालांकि परीक्षाओं का पूरा ढांचा केवल एक ही पहलू पर केंद्रित नहीं रखा जा सकता। वहीं ऑनलाइन आकलन प्रारूप किसी खुली किताब वाली परीक्षा के समान होगा। यह ज्ञान के अनुप्रयोगों के मूल्यांकन की दिशा में आवश्यक परिवर्तनों को गति देगा। इसमें विषय की समझ से संबंधित परख भी बेहतर हो सकेगी।

पाठ्यक्रम को नए सिरे से गढ़ना होगा और पढ़ाई तथा परीक्षा तकनीक में परिवर्तन करने होंगे

अपने शिक्षा तंत्र में व्याप्त कमजोरियों पर अब हम और आंखें मूंदे नहीं रह सकते। हमें पाठ्यक्रम को नए सिरे से गढ़ना होगा और पढ़ाई के तौर-तरीकों और परीक्षा तकनीक में भी जरूरी परिवर्तन करने होंगे। वास्तव में आदर्श शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जो सूचनाओं से ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक हो और साथ ही वह ज्ञान विवेक विकसित करे। किसी समाज को शिक्षित बनाना उसे साक्षर करने से अधिक प्रभावी होता है। साक्षरता का संबंध तो पढ़ने-लिखने और तकनीकी ज्ञान कौशल से है जबकि शिक्षित होने में इन तत्वों के अतिरिक्त नैतिक मूल्यों का भी समावेश होता है।

शैक्षणिक तंत्र ऐसे बच्चों को विकसित करे जो दुनिया को बेहतर बनाएं

क्या कोई शैक्षणिक तंत्र छात्रों को केवल निर्मम कहे जाने वाले लौकिक संसार का सामना करने के लिए ही तैयार करे या ऐसे बच्चों को विकसित करे जो इस दुनिया को बेहतर बनाएं? इस समय सरकार स्कूलों को पुन: खोलने की रणनीति पर काम कर रही है। फिलहाल यह दूर की कौड़ी लगती है। प्रधानमंत्री ने भूमि, श्रम, पूंजी और कानून के मोर्चे पर सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित किया है। भारतीय शिक्षा में ढांचागत सुधारों को लेकर भी ऐसे ही दृष्टिकोण और चिंतन की आवश्यकता है।

कोविड-19 महामारी के बाद दुनिया पहले जैसी नहीं रह जाएगी

कोविड-19 महामारी को लेकर तमाम कहावतें कही जा रही हैं जिनमें से अधिकांश परिवर्तन से जुड़ी हैं। इसमें संदेह नहीं कि अब हमें कई नए रुझान दिखाई दें। फिर भी जब यह कोलाहल शांत होगा तब हम यह देखेंगे कि जहां परिवर्तन एक शाश्वत नियम है, वहीं यह तथ्य भी उतना ही ठोस है कि बुनियादी पहलू कभी नहीं बदलते। जबसे इस महामारी ने दुनिया को थर्राया है तबसे मीडिया से लेकर आम बातचीत में यही चर्चा प्रबल है कि भविष्य की दुनिया अब पहले जैसी नहीं रह जाएगी। विभिन्न धाराओं के विद्वानों ने अपनी-अपनी भविष्यवाणी की हैं। इनमें से अधिकांश अनुमान मात्र ही हैं। इन अनुमानों की प्रामाणिकता को लेकर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता, किंतु हद से ज्यादा अटकलबाजी भी नीरसता का भाव ही भरती है।

चीजें जितनी बदलती हैं उतनी ही वे मूल रूप में कायम भी रहती हैं 

ध्यान रहे कि जो इतिहास से सबक नहीं सीखते वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। मानव प्रजाति का लचीलापन वास्तव में हमारे लिए इतिहास का सबसे बड़ा सबक है। अपने अस्तित्व के साथ ही मानव ने आपदाओं का सामना किया और उसके क्रमिक विकास की प्रक्रिया कभी बाधित नहीं हुई। एक आम कहावत है कि चीजें जितनी बदलती हैं उतनी ही वे मूल रूप में कायम भी रहती हैं। यहां डार्विन की बात भी उल्लेखनीय है जिन्होंने कहा था, सबसे तंदुरुस्त या सबसे बुद्धिमान नहीं, बल्कि सबसे लचीला व्यक्ति ही अपना अस्तित्व बचाए रखेगा। इन दो मूलभूत और ठोस बातों में ही शायद हमारे भविष्य की राह निहित है। देर-सबेर जब हम मौजूदा घटनाक्रम की महत्ता और क्षुद्रता पर विचार करेंगे तो संभवत: यही अहसास होगा कि पता नहीं किस बात को लेकर इतना बखेड़ा हुआ था?