मुंबई। Maharashtra Politics: मई माह की पहली तारीख से श्रमिकों के लिए विशेष ट्रेन शुरू की गई थी और इसी तारीख को महाराष्ट्र और गुजरात जैसे समृद्ध एवं उन्नत राज्यों का गठन हुआ था। इसमें भी कोई शक नहीं कि इन दोनों राज्यों को उन्नति के इस मुकाम तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका जिस खून-पसीने की रही, वह वहां उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से पहुंचा है।
दुर्भाग्य देखिए कि इस बार जब हम लोग कोरोना के डर से अपने घरों में बैठे महाराष्ट्र और गुजरात दिवस मना रहे थे, तो यही खून-पसीना सिर पर गठरी लादे यूपी व बिहार की ओर पलायन करता दिखाई दे रहा था। तो क्या अब उन्नति के शिखर पर पहुंच चुके राज्यों को इन श्रमिकों की जरूरत नहीं रही?
प्रवासी श्रमिकों से भरी विशेष ट्रेनें यूपी-बिहार की ओर रवाना : पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र में शुरू हुई बहस से तो ऐसा ही लगने लगा है। जब मुंबई के विभिन्न स्टेशनों से प्रवासी श्रमिकों से भरी विशेष ट्रेनें यूपी-बिहार की ओर रवाना होने लगीं, और सड़क मार्ग से पैदल चलकर कुछ श्रमिक भाई अपने-अपने घरों की ओर निकल पड़े तो महाराष्ट्र के कुछ दिग्गज नेताओं ने ठंडी सांस भरकर कहा कि अब तो इन श्रमिकों से खाली हुए स्थान पर भूमिपुत्रों को जगह मिल ही जाएगी। स्वयं मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने स्थानीय उद्यमियों को आह्वान किया कि वे अपने उद्योगों में अब भूमिपुत्रों अर्थात स्थानीय लोगों को काम देना शुरू करें। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जानते हैं कि ऐसा होनेवाला नहीं है। इन्हीं में से एक हैं शिवसेना के राज्यसभा सदस्य संजय राउत। बीते दिनों शिवसेना मुखपत्र में लिखे अपने स्तंभ में उन्होंने माना कि मराठी तरुण मेहनत-मजदूरी वाले कामों में आगे आनेवाले नहीं हैं। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे दावा करते हैं कि अन्य राज्यों के मुंबई में रहते आए प्रवासियों को लॉकडाउन के बाद खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं हुई। इसके बावजूद वे अपने घर जाना चाहते थे।
लॉकडाउन के कारण कमाई का कोई जरिया नहीं बचा था : लेकिन उनके दावे की पोल प्रवासी श्रमिकों के बीच काम करनेवाली एक स्वयंसेवी संस्था स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क की एक रिपोर्ट से खुल जाती है। प्रवासियों के 1,531 समूहों एवं 16,863 एकल श्रमिकों से बातचीत के आधार पर तैयार इस संस्था की रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान यहां रह रहे 93 फीसद श्रमिकों तक कोई सरकारी राशन नहीं पहुंचा और 91 फीसद लोगों को उनके काम का पारिश्रमिक नहीं मिला।
रिपोर्ट कहती है कि लॉकडाउन के 32 दिन बीतने के बाद ही 64 फीसद प्रवासी श्रमिकों के पास 100 रुपये से भी कम बचे थे। ऑटोरिक्शा, टैक्सी चालक, भेलपूरी, सब्जी विक्रेता, बढ़ईगीरी जैसे स्वरोजगार में लगे लोगों में से 99 फीसद के पास लॉकडाउन के कारण कमाई का कोई जरिया नहीं बचा था और सरकारी राशन उन्हें मिल नहीं पा रहा था। कहा तो जा रहा था कि देश में कहीं का भी राशनकार्ड हो तो यहां का राशन मिल जाएगा। लेकिन एक प्रवासी रामसिंह बताते हैं कि मुंबई का ही राशनकार्ड होने के बावजूद उन्हें सरकारी राशन नहीं मिला। ऐसे वंचितों की संख्या हजारों में रही है।
माइग्रेशन कमीशन बनाने का आया विचार : वास्तव में इसी दुर्दशा ने श्रमिकों को मुंबई से पैदल ही भागने पर मजबूर कर दिया। संभवत: श्रमिकों की इसी दुर्दशा के कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मन में माइग्रेशन कमीशन बनाने का विचार आया होगा। हालांकि उनका यह बयान व्यावहारिक नहीं लगता कि भारत के ही एक राज्य से दूसरे राज्य में श्रमिकों के जाने पर किसी राज्य को अनुमति देनी पड़े या कोई राज्य अनुमति मांगे। इससे श्रमिकों के लिए ही दिक्कतें खड़ी होंगी। लेकिन इस दौरान खड़े हुए संकट से सबक लेकर माइग्रेशन कमीशन का गठन तो केंद्र सरकार के स्तर पर होना चाहिए, क्योंकि यह समस्या किसी एक राज्य से संबंधित है ही नहीं। लेकिन अब योगी के बयान पर भी महाराष्ट्र में राजनीति शुरू हो जाना इसी ओर इशारा करता है कि राजनीतिक दल अब प्रवासियों के पलायन का भी राजनीतिक लाभ लेने की योजना बनाने लगे हैं।
दरअसल आर्थिक राजधानी का दर्जा प्राप्त इस महानगर में गैर मराठी भाषियों की आबादी ही दो तिहाई से अधिक है। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तकलीफ का कारण यही है। चुनाव के दिनों में उसके मराठीभाषी मतदाताओं पर यही गैर मराठीभाषी आबादी निर्णायक स्थिति में आ जाती है। दो साल बाद ही उस मुंबई महानगरपालिका के चुनाव होने हैं, जहां शिवसेना पिछले 30 वर्षो से सत्ता में है और पिछले चुनाव में भाजपा उससे सिर्फ दो सीट पीछे रह गई थी। राज्य की सत्ता शिवसेना के हाथ में कब तक रहेगी, पता नहीं। कम से कम मुंबई की सत्ता से तो वह हाथ नहीं धोना चाहती।