तो क्या निजी अस्पताल बड़े रियल एस्टेट उद्योग की तरह हो गए हैं, वे पैसा कमाने की मशीन बन गए हैं ?

अस्पताल बने उद्योग

सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल ठीक कहा है कि निजी अस्पताल बड़े रियल एस्टेट उद्योग की तरह हो गए हैं। वे पैसा कमाने की मशीन बन गए हैं। वे इंसान की जान की कीमतों पर चल रहे हैं। इनमें मानवता खत्म हो गई है। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ का कहना है कि निजी अस्पताल लोगों के दुःख दर्द पर चल रहे हैं। जिन्हें इंसानी जान की कीमत पर समृद्ध होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इन्हें बंद किया जाना चाहिए, और सरकार को स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करना चाहिए।
पीठ अस्पतालों में आग लगने की घटनाओं से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रही थी। न्यायाधीशों की टिप्पणी से निजी अस्पताल के संचालकों को छोड़कर शायद ही कोई असहमत हो। अस्पतालों में मरीजों का कैसे आर्थिक दोहन होता है, यह अब छिपी हुई बात नहीं है। कोरोनकाल में निजी अस्पतालों, फार्मा कंपनियों और मेडिकल स्टोर्स ने कैसी लूट मचा रखी थी, यह सबने देखा है।
न्यायाधीशों ने ठीक ही कहा कि ये अस्पताल उद्योग में बदल गए हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार उन्हें संरक्षण देती दिखती है।
सच कहें तो पीड़ित/ मानव की सेवा की बात पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं है। लॉकडाउन के समय सरकारी निर्देशों का उल्लंघन करने, मनमानी फीस वसूलने और दवाओं की कालाबाजारी करने के आरोप में अस्पतालों, दवा दुकानों पर कई केस हुए। लेकिन कई महीने बीत जाने के बाद भी उनपर क्या कार्रवाई हुई ? इसका क्या अर्थ निकाला जाए?
समस्या बहुत गंभीर है। सरकारी अस्पतालों में मरीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता, सुविधाओं का टोटा है और निजी अस्पताल पैसा कमाने की मशीन बन गए हैं। ऐसे में आम आदमी इलाज के लिए कहां जाए, यह एक बड़ा सवाल है।
फार्मा कंपनियों और उद्योगपति डॉक्टरों की लाबी इतनी मजबूत है कि सरकारें उनपर कार्रवाई करते डरती हैं। वे राजनीतिक पार्टियों को चंदा देते हैं, डॉक्टरों को महंगे तोहफे देते हैं। बदले में सरकारें और डॉक्टर उनके हितों की रक्षा करते हैं।
सरकार ने ब्रांडेड दवाओं के बदले जेनरिक दवाएं लिखने का निर्दश जारी कर रखा है। आईएमए की नेशनल कमेटी ने भी डॉक्टरों को दवाओं के जेनरिक नाम लिखने की अपील की है, लेकिन इसका पालन हो रहा है या नहीं, इसे देखनेवाला कोई नहीं। कोर्ट के आदेशों को भी धत्ता बता दिया जाता है।
सेवा में विश्वास करनेवाले डॉक्टरों और मानवीय दृष्टिकोण रखनेवाले अस्पताल संचालकों को सरकार को संरक्षण और प्रतिष्ठा देनी चाहिए। चिकित्सा व्यवस्था को संवेदनशील बनाने और आम आदमी की पहुंच तक पहुंचाने के लिए समग्र चिंतन की जरूरत है। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सरकारें इस मसले पर कितनी गंभीर और संवेदनशील हैं?

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