विश्वविद्यालय को लटकाने, भटकाने की बजाय मोहब्बतपुर पर विचार करे शासन-प्रशासन

आज़मगढ़। जनपदवासियों के छ: दशकों के इंतजार और लम्बे संघर्ष के उपरांत विश्वविद्यालय का सपना साकार हुआ है। प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री मा0आदित्यनाथ योगी जी ने जनपदवासियों के दुर्गम आंदोलन को देखते हुए विश्वविद्यालय की सौगात दी। आगामी 15 जून से यह कार्य करना भी आरम्भ कर देगा। किन्तु इन सबके बीच सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विश्वविद्यालय के लिये जिले के दो जिलाधिकारियों समेत शासन की टीम द्वारा जनपद मुख्यालय से मात्र 3 किमी पर स्थित 2019 से चिन्हित, अधिग्रहित और खरीदी गई मोहब्बतपुर, दौलतपुर और महिलिया गांव की सबसे उपयुक्त भूमि को शासन प्रशासन द्वारा नकारने और दूरस्थ क्षेत्र में विश्वविद्यालय बनवाने की जिद खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। दूसरी तरफ विश्वविद्यालय के लिए 2015 से पसीना बहा रहे जनपदवासी विश्वविद्यालय के साथ यह खिलवाड़ बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं हैं और इस कुचेष्टा के विरुद्ध व्यापक आंदोलन की रणनीति बना रहे हैं।
      08 फरवरी 2021 को मुख्यमंत्री के जनपद के मोजरापुर जनसभा व समीक्षा बैठक और उसके उपरांत अब तक के पांच महीने के दौरान जिला प्रशासन की भ्रामक व दुराग्रहपूर्ण गतिविधि ने प्रत्येक जनपदवासी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जिला प्रशासन जिले से जुड़े जनप्रतिनिधियों के दबाव में कार्य कर रहा है और मोहब्बतपुर की बजाय उनके क्षेत्र में विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहता है। ऐसा सोचने के कई कारण भी हैं जो चर्चा के विषय भी रहे हैं।
       पहला और सबसे बड़ा कारण यह है कि सन 2019 से जिले के दो जिलाधिकारी शिवाकांत द्विवेदी और नागेंद्र प्रताप सिंह, मंडलायुक्त कनक त्रिपाठी सहित शासन की कई टीमों ने मोहब्बतपुर की भूमि विश्वविद्यालय के लिये उपयुक्त मानते हुए शासन को रिपोर्ट भेजी थी। किसी भी अधिकारी ने इसे लो लैंड नहीं बताया और एन जी टी का पेच फसाया। इस दौरान विश्वविद्यालय अभियान से जुड़े लोग भी जिले के और लखनऊ के अधिकारियों से अग्रिम प्रगति की जानकारी लेते रहते थे। वास्तविक समस्या तब शुरू हुई ज़ब लोक निर्माण विभाग द्वारा बनाये एस्टीमेट में शासन ने कटौती की। मिट्टी वर्क के लिये मांगी गई 58 करोड़ की राशि को घटाकर आधा कर दिया गया। इससे लोक निर्माण विभाग के अधिकारी बिलबिला उठे। उन्होंने यहां तक कहा कि यदि एस्टीमेट में कटौती की गई तो वह कार्यदायी संस्था नहीं रहेगी। प्रत्यक्षदर्शी भी बता सकते हैं कि लोक निर्माण विभाग के अधिकारीगण शासन से आई टीमों को गुमराह करते थे कि मोहब्बतपुर के ऊँचे-ऊँचे भीटे बाढ़ में डूब जाते हैं और ये भीटे बह जायेंगे। जबकि हकीकत यह है कि अधिग्रहित भूमि का 80% हिस्सा ऊंचे भीटे हैं जो आज तक कभी नहीं डूबे। मिट्टी वर्क के 58 करोड़ के एस्टीमेट को उचित बताने के लिए ही अधिग्रहित भूमि को लो लैंड कह दिया गया। यहां तक कि मोजरापुर आगमन पर मा0 मुख्यमंत्री महोदय को भी बता दिया गया कि अधिग्रहित भूमि लो लैंड है। इस पर मुख्यमंत्री जी नाराज भी हुए तो जिलाधिकारी महोदय ने कह दिया कि उक्त भूमि पिछले जिलाधिकारी ने देखी है, मैंने तो दूसरी जमीने देख रखी हैं। यहां एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि ज़ब जिलाधिकारी महोदय की नजर में अधिग्रहित भूमि लो लैंड और विश्वविद्यालय के लिये अनुपयुक्त थी तो फिर लगभग 20 करोड़ रूपये देकर 387 काश्तकारों की उपजाऊ और सड़क के किनारे की महंगी भूमि शिक्षा का प्रसार होने का बहकावा देकर क्यों खरीदी गई?
      जिलाधिकारी द्वारा मुख्यमंत्री को भ्रामक सूचना देने के साथ ही आज़मगढ़ के चंद अवसरवादी जनप्रतिनिधियों और नेताओं का कुरूप चेहरा भी सामने आने लगा। ये जिलाधिकारी को अपने अपने क्षेत्र में विश्वविद्यालय के लिये जमीन चिन्हित करने का दबाव देने लगे। इसी के चलते मुख्यमंत्री के जाने के बाद 08 फ़रवरी को जिला प्रशासन ने  सबसे पहले अतरौलिया ब्लॉक के मकरहां गांव का वैकल्पिक प्रस्तावित दिया और तर्क दिया कि इससे अतरौलिया क्षेत्र में शिक्षा का प्रसार होगा। जनपद मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर अम्बेडकरनगर मार्ग पर दिए गए इस विकल्प के विरुद्ध 10 फ़रवरी को विश्वविद्यालय अभियान और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने विरोध प्रदर्शन किया। शाम को सूचना विभाग द्वारा जारी विज्ञप्ति में जिलाधिकारी ने मकरहां के प्रस्ताव से इंकार कर दिया किन्तु यह भी कहा कि विश्वविद्यालय के लिये अन्यत्र भूमि तलाश की जाएगी।
     दरअसल वे मुख्यमंत्री जी से यह कहकर फंस चुके थे कि उन्होंने विश्वविद्यालय के लिये दूसरी जमीन देख रखी है। उन्होंने अपने मातहतों को किसी भी तरह की दूसरी जमीन तलाशने का फरमान जारी किया। यहां यह भी बता दें कि सन 2019 में विश्वविद्यालय के लिये जमीन तलाशने का आदेश आया था तो सदर सहित जिले के आठो तहसीलों के तहसीलदार ने लिखित रूप से दे दिया था कि उनके तहसील में कहीं सरकारी जमीन नहीं है। किन्तु अब चूंकि जिलाधिकारी की जुबान दांव पर लग चुकी थी इसलिए तरह तरह की जमीनों की सूचना मिलने लगी।
       सिर्फ मातहत ही क्या, चंद क्षेत्रीय नेताओं की लोभ लिप्सा भी हिलोरे खाने लगीं। इन सबके मन में तमन्ना जग गई कि काश विश्वविद्यालय उनके घर आँगन क्षेत्र में ही बन जाये तो उनकी राजनीती तो चटक ही जाएगी वे मालामाल भी हो जायेंगे। आखिर यह तमन्ना जगे भी क्यों न? उन्होंने पूर्व में आज़मगढ़ के कई जनप्रतिनिधियों को सार्वजनिक योजनाओं को अपने घर आँगन में बांधते देखा है। किसी का नाम लेने की जरूरत क्या है? जनपद में आज़मगढ़ पी0जी0आई0, आज़मगढ़ इंजीनियरिंग कालेज, डेयरी, ट्रामा सेंटर आदि तमाम बड़ी सार्वजनिक योजनाएं क्षेत्रीय लोभ लिप्सा की शिकार हुई हैं। यही तो आज़मगढ़ में अब तक विकास का मॉडल रहा है। बड़ी सार्वजनिक परियोजनाओं को लाओ, अपने खेत खलिहान में बांधो और उनका जिंदगी भर दोहन करो।
      सो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। जिला प्रशासन के साथ क्षेत्रीय नेता भी विश्वविद्यालय को मोहब्बतपुर से हटाने में लग गए। इनमे ऐसे विधान परिषद सदस्य भी थे जो 2019 के पहले तक विश्वविद्यालय अभियान का पत्रक को पकड़ते तक नहीं थे। विधान परिषद में आज़मगढ़ में विश्वविद्यालय का मुद्दा ज़ब विधान परिषद सदस्य मा0ध्रुव कुमार त्रिपाठी जी उठाते थे तो आज़मगढ़ के आठ सदस्य सामने बैठकर समर्थन तक नहीं करते थे। आज  उन्हीं में से विश्वविद्यालय के लिये कोई अतरौलिया, कोई निजामाबाद, कोई कोटिला, कोई जहानागंज तो सगड़ी में जमीन चिन्हित करने के लिये जिला प्रशासन पर दबाव डाल रहा है। आज़मगढ़ की जनता को इन सबके बारे में भी विचार करने का समय आ गया है। आज़मगढ़ की कोख से जातिवादी, मजहबी और केवल जोड़ तोड़ करने वाला जनप्रतिनिधियों की बजाय ऐसे जनप्रतिनिधि आने चाहिए जो आज़मगढ़ के समग्र और सुनियोजित विकास की सोच रखते हो।
        यह और भी चिंता का विषय है कि इस संबंध में आज़मगढ़ भाजपा का एक भी प्रतिनिधिमण्डल मा0मुख्यमंत्री जी से नहीं मिल पाया। जनपद भाजपा का प्रत्येक नेता जानता है कि आज़मगढ़ राज्य विश्वविद्यालय मुख्यमंत्री जी का ड्रीम प्रोजेक्ट है और विगत चार महीने से उसके साथ खिलवाड़ हो रहा है। आखिर उन्हें वस्तुस्थिति की जानकारी कौन देगा?
       अब जरा जिला प्रशासन द्वारा विश्वविद्यालय के लिये देखी गई अन्य जमीनों पर भी दृष्टि डाला जाए। क्या ये जमीने पूर्व चयनित नगर से मात्र 03 किमी की दूरी पर , आज़मगढ़ -मऊ फोरलेन और पूर्वांचल एक्सप्रेस वे के मध्य स्थित मोहब्बतपुर का विकल्प हो सकती हैं?……
या विश्वविद्यालय को अनुपयोगी बनाने और उसे लटकाने व अटकाने का षड़यंत्र मात्र?
===मकरहां(बुढ़नपुर तहसील)-नगर मुख्यालय से दूरी 50 किमी/चरागाह/ऊसर
===बेगपुर खालसा (निजामाबाद तहसील)– नगर मुख्यालय से दूरी 12 किमी/बस रूट नहीं/ग्रामीण मार्ग पर स्थित/पूरी जमीन क्रय करनी होगी/पूरी जमीन लो लैंड
===गदनपुर इक्षनपट्टी(सगड़ी तहसील)–
नगर मुख्यालय से दूरी 16 किमी/ ग्रामीण मार्ग पर/आवागमन के साधन का अभाव/ पूरी जमीन क्रय करनी होगी
===आज़मबांध(सदर तहसील/ब्लॉक जहानागंज)–नगर मुख्यालय से दूरी 14 किमी/ आज़मगढ़ गाजीपुर रोड से 5 किमी अंदर ग्रामीण मार्ग पर/चरागाह की जमीन/ काफ़ी जमीने काश्तकारों से खरीदनी होंगी
       क़ानून विशेषज्ञ कहते हैं कि चरागाह की भूमि ले नहीं सकते अथवा प्रदेश सरकार इसके लिए अधिसूचना जारी करे और उतनी ही भूमि कहीं अन्यत्र चरागाह घोषित करे। इसके उपरांत ही उक्त भूमि का अधिग्रहण हो सकता है। शेष जमीन किसानों से क्रय करनी होगी। क्या इन सब प्रक्रिया में न्यूनतम 5-6माह नहीं लग जायेंगे। इसके उपरांत भ्रस्ट लोक निर्माण विभाग सबका ख्याल रखते हुए एस्टीमेट और DPR शासन को भेजेगा। शासन फिर से उसमें कटौती करेगा ही। इस प्रकार आज़मबांध का प्रस्ताव विश्वविद्यालय को लटकाने और अटकाने वाला है। इसके अलावा बेगपुर खालसा और इक्षनपट्टी की पूरी भूमि खरीदनी है जिसकी अनुमति शासन कत्तई नहीं देगा। क्योंकि शासन का जोर सरकारी जमीन पर है।
      इस तरह उक्त सभी जमीने मोहब्बतपुर का विकल्प नहीं बन सकती। इनमे से कोई भी भूमि यदि चयनित की गई तो विश्वविद्यालय की स्थापना वर्षों विलंबित होगी। क्योंकि 2019 से आज़मगढ़ का जिला प्रशासन और लोक निर्माण विभाग चयनित भूमि मोहब्बतपुर को अंतिम रूप नहीं दे सका तो क्या गारंटी कि इस सरकार के बचे 6-7 महीने में समस्यायुक्त कोई अन्य भूमि फाइनल हो पायेगी।