अब तो रहम कर दे मेरे मौला,  जर्नलिस्ट की डायरी- भाग-2

 

(कोरोना आपदा काल- दूसरी लहर)

मैंने अपने जीवन काल में कभी ऐसा क्रूर समय और अमानवीय सोच नहीं देखी-कि अस्पतालों के बाहर अपने-अपने मरीजों को लेकर भीड़ खड़ी हो और अपने मरीजों की छटपटाहट देखकर वह हर पल ईश्वर से प्रार्थना कर रही हो कि हे भगवान ! अंदर कोई बेड़ खाली मिल जाए, कोई आक्सीजन मिल जाए, कोई वैन्टीलेटर मिल जाए, इसके लिए वे किसी नेता से, किसी बड़े पत्रकार से, किसी अफसर से सिफारिशें लगा रही हो.. .
दूसरे शब्दों में इतना त्रासद दौर हाल के समय में नहीं देखा गया कि कोई यह इन्तजार करे कि- “एक बेड़ पर पड़ा बीमार, जल्दी से मरे तो उसका बेड़ खाली होकर उसे मिल जाए…और वह अपने मरीज को एडमिट कर इलाज शुरू करा सके. सच कहें तो अस्पतालों को इतना भी समय नहीं मिल पा रहा था कि- जिस बेड़ पर लेटा-लेटा मरीज अर्थी में बदल गया हो, और दवाएं उसकी जान बचा नहीं पायीं हों, उस बेड़ पर लगे विस्तर,आक्सीजन मास्क और अन्य चिकित्सकीय उपकरणों को दूसरे पेशेंट के आने से पहले- कम से कम सेनेटाइज तो किया जा सकें. यानि बेड़ से उठती लाशें अभी उठी भी नहीं..कि दूसरे ने कब्जा कर लेने में ही सबसे बड़ा पराक्रम और समय की बुद्धिमानी मान लेता. यह कोरोना की दूसरी लहर के घातक प्रहार का एक खतरनाक दृश्य भर है. मानवीय संवेदनाएं किस तरह से इस कालखंड में सूखते जा रहीं थीं और लोग इंसान से पाषाण में तब्दील होते जा रहे थें.यह इस दौर के मनोविज्ञान का अध्ययन करके जाना जा सकता है.
एक दिन ईएमटी के पास रात के समय अचानक से एक काल आयी. काल करने वाले का पेशेंट गंभीर हालत में था, उसका आक्सीजन लेबल तेजी से नीचे गिर रहा था, सांसें उखड़ रहीं थीं, परिजनों ने कहाँ, साहब! मेरे पेशेंट को एक वेंटीलेटर बेड़ दिला दीजिए, जो भी पैसे लगेगें हम देगें. शायद उस परिजन को लगा कि हम सरकारी विभाग से हैं, या अस्पताल प्रबंधन से हैं, मैंने उससे कहाँ कि- देखिए! हम आप ही की तरह सामान्य लोग हैं और आप लोगो की सेवा में लगें हैं.यह आपदा काल है. हम नहीं जानते हैं कि हम आप को वैन्टीलेटर दिला पाएंगें की नहीं, लेकिन कोशिश जरूर करेगें. यदि कहीं खाली होगा तो जरूर मिलेगा. उसे लगा कि-हो सकता है कि पैसे की लालच देकर बेड़ जल्दी मिल जाए. जबकि हकीकत यह है कि आप किसी को पैसे के बल पर वैन्टीलेटर नहीं दिला सकते. कारण, अस्पतालों में वैन्टीलेटर सीमित संख्या में हैं और कोरोना की चपेट में आए मरीजों की संख्या असीमित होती जा रही थी. हमारी टीम ने लगभग सभी अस्पतालों में बातचीत की लेकिन कहीं पर भी बेड़ उपलब्ध नहीं था. अब यह कैसे संभव था कि- किसी वैन्टीलेटर के मरीज को हटाकर उस पर किसी और को जगह दिया जाए. यह मेडिकल इथिक्स और ऊपर वाले की इथिक्स में भी अनैतिक और अपराध की श्रेणी में था और है. हम लोगो ने अपना अंतिम कोशिश की. लेकिन वैन्टीलेटर नहीं दिला सकें. आजमगढ़ मेडिकल कॉलेज में जब बात हुई तो बहुत निवेदन पर सुबह तक एक बेड़ खाली होने की बात कही गई. ऐसे में हम क्या करते हमने उन्हें आक्सीजन बेड़ पर रहकर थोड़ा इंतजार करने की सलाह दिया, लेकिन मरीज के परिजनों ने उसे लेकर बनारस जाने का निर्णय ले लिया, और आजमगढ़ की सीमा तक ही पहुंचे थे कि उनके मरीज की सांसें उखड़ गयी. वह दम तोड़ दिया. यह समाचार सुनकर भोर में हमारी आंखों में आंसू थें. बगल में बच्चे और पत्नी नींद में सो रहीं हैं और हमारी आंखें डबडबाई जा रही हैं, नींद तो कोसो दूर थीं. हम उस अपराध बोध से ग्रसित हुए जा रहे थे कि काश! कहीं भी बेड़ मिल जाता, हम दिला पाते तो उसकी जान शायद बच जाती.ऐसी कई रातें हमने, हमारे ईएमटी के साथियों ने वाट्सएप मैसेज और अस्पताल के बीच प्रबंधन सेतु बनाने में आंखों आंखों में काट दी. मरीज को लेकर अस्पताल के बाहर लाइन में लगा तीमारदार और मरीज छटपटा रहा है और हम अपने मोबाइल पर मैसेज पास करते, रिस्पांस मिलने का इंतजार करते, मध्य रात्रि, भोर और फिर सुबह तक मोबाईल स्क्रीन और फोन की घंटियों को सुनने और काल करने में बीता देते. सुबह फिर वही नियमित संदेश की मेरे मरीज का डिटेल्स यह है, इसको भर्ती करा दीजिए, बेड़ या आक्सीजन दिला दीजिए….आदि संदेशों की हृदयविदारक आवा़जें जैसे मोबाइल संदेशों से निकल कर ध्वनि तरंगों में हमारे कानों के पर्दों से टकरा रही थीं. और हम एक रेस्क्यू किए नहीं, कि दस का मैसेज ग्रूप में पहले से पड़ा रहता है… हमारी स्थिति एक अर्धविक्षिप्त सी होती जा रही थी. दिन रात मोबाइल पर लगें रहना, लोगों को भर्ती करना और फिर न करा पाने की स्थिति में हुई मौतों के लिए सिस्टम…और फिर उस अपराध बोध से अपने को कोसते रहना ही…हमारी पिछले 1 मई से नियमित दिनचर्या बन गयी थी.. हम आज भी उन जिन्दगियों को न बचा पाने के अपराध बोध से निकाल नहीं पा रहे हैं, जिन्हें यदि समय रहते आक्सीजन और बेड़ मिल जाता तो शायद उनके अनमोल जीवन को बचाया जा सकता था. बार बार यही सोचते हैं कि क्या हमारे प्रयास में कोई कमी थी…? ईश्वर से बड़ा न्यायाधीश भला कौन होगा. सबकुछ तो उसके आंखों के सामने घटता गया. अब तो रहम कर दे मेरे मौला…!